File not found
india

भगत सिंह नें फांसी के दौरान किसे कहा कि, ‘तुम बहुत भाग्यशाली हो’...जानिए यहां

मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे..

मेरा रंग दे बसन्ती चोला , माय रंग दे बसन्ती चोला...

23 मार्च 1931 की वो काली शाम जिसमें सूरज पूरी तरह से ढूब चुका था, और सन्नाटा दूर-दूर तक पसरा हुआ था। हवांए भी अपना रूख बदलें तो जोर-ज़ोर से सुनाई दे रही थी। कुछ पल तो ऐसा लग रहा था मानो जैसे कोई तुफान आने वाला हो। पर वो कैसा तुफान था, जिसका बस अहसास हो रहा था, और उसका स्वरूप काली रात में घुल रहा था। जो पूरी तरह से दिखाई नहीं दे रहा था।

फिर एक पल के लिए हवाएं भी उस वक्त शान्त हो गई जब इन तीनों देश प्रेमियों की आवाज आने लगी थी,मेरा रंग दे बसन्ती चोला गाने में तीनों क्रान्तिकारी तर्ज मिलाकर देश के लिए अपना प्रेम जता रहे थे। जिसकी गवाह पूरी कायनात थी। जब उस अन्धेरी शाम को भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव को फांसी देने के लिए जाया जा रहा था, तो फिर से चारों तरफ की हवाए ज़ोर-ज़ोर से शोर करने लगी। मानों वे हवाएं भी तीनों क्रान्तिकारी को बचाने के लिए कोशिशों में लगी हुई थी। हवाओं  का रूख बदलते देख पशु-पक्षी भी इधर-उधर भागने लगे जैसे किसी बहुत बड़ा तुफान के आने का संकेत मिल रहा हो।

May you also like:  Which Freedom Fighter are You According to Your Zodiac Sign?

चारों तरफ अन्धेरा छाने के बाद 7 बजकर 33 मिनट पर क्रूर अग्रेंजों ने सभी से छुपाकर भगत सिंह और राजगुरू, सुख देव को फांसी दे दी। और वे तीनों भी हंसते –हंसते मेरे रंग दे बसन्ती चोला, आखिरी शब्दों के साथ जीवन को अलविदा कर शहीद हो गए। तीनों क्रान्तिकारी के शहीद होते ही वो तुफानी रात अचानक सन्नाटा में तब्दील हो गई। पूरा शहर को लगा जैसे कुछ अनहोनी हुई है।

पूरा सिक्ख समुदाय और पंजाब को  ऐसा महसूस हो रहा था कि जैसे कि उनका जिगरा उनसे छिना जा रहा हो। और लगे भी क्यों ना..जब ब्रिटिश सरकार द्वारा 24 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके दो क्रान्तिकारी साथी राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी जानी थी, इसी वजह से पूरे देश के लोग भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए आन्दोलन की तैयारी कर रहे थे। लेकिन यह ब्रिटिश सरकार को पता लग गया , और उन्हें डर हुआ यदि भगत सिंह और उनके साथी आजाद हो गए तो देश से ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व मिट जाएगा। इसलिए ब्रटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 की रात को ही तीनों को फांसी दे दी।

Might you also like: This 72nd Independence Day, Indian Women Are Still Awaiting These Basic Freedoms

अचानक से लोगों के पास तीनों कान्तिकारियों को फांसी दी जाने की खबर पहुंची तो सभी लोग आनन-फानन में फांसी दी जाने वाली जगह की ओर भागे। और उधर ब्रिटिश सरकार ने सोचा कि कहीं फांसी देने के बाद आन्दोलन ना भड़क जाए इस डर की वजह से अग्रेंजों ने पहले मृत शरीर के टुकड़े -टुकड़े किए और बोरियों में भरकर फिरोजपुर की तरफ ले गए।

और उनके मृत शरीर को मिट्टी के कैरोसिन के तेल से जलाने लगे  लेकिन कुछ गांव के लोगों को पता चल गया और जब वे आए तो डर के मारे अग्रेंज भागने लगे और आधे जले हुए शरीर को सतलुज नदीं में फेंक दिया और वहां से  भाग गए। गांव वालो ने उन तीनों के शरीर के टुकड़ो को इकट्टा किया और अन्तिम संस्कार किया।

फांसी देने से पहले क्या कर रहें थे भगत सिंह-

वैसे तो भगत सिंह ने जेल में रहने के दौरान काफी किताबें पढ़ी थी। लेकिन जब उन्हें फांसी देने के लिए बुलाने आए तो , उस वक्त वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहें थे, जेल में रहनें वाले पुलिस वालों ने उन्हें बताया कि उनकी फांसी का समय हो गया। तब भगत सिंह बोले ठहरिए, पहले एक क्रान्तिकारी से दूसरे  क्रान्तिकारी को मिल तो ले। और फिर भगत सिंह ने अगले एक मिनट तक किताब पढ़ी , फिर किताब बन्द कर उसे छत की ओर उछाल दिया और बोले, ठीक है, अब चलों।

और एक किस्सा और है जब भगत सिंह और उनके साथियों को गुप्त तरीके से फांसी दी जा रही थी, उस दौरान बेहद ही कम लोग थे। वहां उपस्थित लोगों में से एक यूरोप के डिप्टी कमिश्नर थे। फांसी के तख्ते पर चढ़ने के बाद और जब भगत सिंह के गले में फांसी का फंदा डाला गया उस वक्त भगत सिंह ने डिप्टी कमिश्नर की ओर देखा और मुस्कुराते हुए कहा कि , मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद ही भाग्यशाली है कि आपकों यह देखने का मौका मिल रहा है कि भारत देश के क्रान्तिकारी किस तरह से अपने आदर्शों के लिए फांसी पर झूल जाते है।

जब भगत सिंह के दिल में आजादी प्राप्त करने के लिए अंगारे भड़कें-

वो दिन एक दिन जो कई हजार लोगों के लिए मनहुष दिन साबित हुआ था, लेकिन वो एक दिन भारत देश का एक बालक के लिए आजादी पाने की, जो शोला भड़का उससे पूरी दुनिया आज तक वाकिफ है। जी हां हम बात कर रहे है जलियावालां बाग हत्याकांड के दिन की, जिसमें कई हज़ार और बेकसूर लोगों को अग्रेंजों की गोलियों ने भूनकर मौत के घाट उतार दिया था।

अग्रेजों के उस क्रूर व्यवहार को देखकर एक 12 बरस के बालक के दिल और दिमाग में आजादी का शोला भड़क उठा , और ठान लिया कि चाहें कुछ भी हो जाए पूरे देश को जब तक अग्रेंजो से  आजादी नही मिल जाएगी तब तक वो चैन से नहीं बैठेंगें। 12 बरस का वो लड़का अपने पूरे सिक्ख समुदय और पूरे देश में देश प्रेम की भावना जगाने की हर संभव कोशिश करने लगा। स्कूल , कॉलेजों से लेकर हर जगह अग्रेंजों को देश से निकालने के लिए अलख जगाने लगा।

12 साल के बच्चों का दिमाग खेल और खिलौनो के बीच होता है लेकिन भगत सिंह का दिमाग भी आजादी के खेल मे लग रहा था। कोई नहीं जानता था कि यह साधारण बालक आगे चलकर देश के लिए आजादी दिलाने का रास्ता खोज सकता है। और आगे चलकर भगत सिंह देश के सबसे युवा क्रान्तिकारी साबित हुए और 24 वर्ष की कम आयु में ही शहीद हो गए। लेकिन उसके बाद आजादी की लपटें पूरे देश में ऐसी लगी कि पूरे देशवासियों ने मिलकर देश से अग्रेंजों को खदेड़ कर 15 अगस्त 1947 को देश आजाद करवा कर ही दम लिया।