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रक्षाबंधन का पौराणिक महत्व !

सनातन काल से सनातन धर्म में अनेको व्रत और त्यौहार मनाये जाते है | प्राचीन काल में त्यौहार मनाने के अनेको कारण होते थे | किसी विशेष अवसर को मनाने के साथ ही लोग एक दूसरे के सम्पर्क में भी बने रहते थे | बहुत दूर रहने वाले संबंधी भी त्यौहारों के अवसर पर एक दूसरे से मिलने और साथ में त्यौहार मनाने के लिए जाया करते थे | ये अवसर खुश रहने और दूसरो की  सहायता करने के अवसर भी बन जाया करते थे | दान का महत्व भी इन अवसरों पर बढ़ जाता था | इससे लोगो में एक दूसरे के प्रति प्रेम ,सौहार्द्र और दया की भावनाये उत्पन्न होती थी |

आज के समय में अब हम अपने त्यौहारों को उतने उत्साह से शायद ही मनाते हो | रक्षाबंधन का त्यौहार  भाई बहन के प्यार और उनके एक दूसरे के प्रति कर्तव्य को याद दिलाता है | जहाँ बहन अपने सभी व्यस्त कामो से समय निकाल कर अपने भाई को राखी बाँधने जाती है वही भाई अपने बहन को उसकी रक्षा करने का वचन देता है | भाई -बहन का यह त्यौहार प्राचीन काल  में सर्वप्रथम माँ लक्ष्मी ने अपने पति भगवान विष्णु को वापस पाने के लिए मानाया था |

प्राचीन कथा के अनुसार जब राजा बलि ने विजय प्राप्ति हेतु अश्वमेध  यज्ञ किया तो उसकी सफलता से देवराज इंद्र भयभीत हो उठे | सभी देव मिल कर भगवान  विष्णु के पास गए | देवो परेशानी जानकर भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और राजा बलि से दान में तीन पग भूमि मांगी | राक्षसों के गुरु शुक्राचार्य ने भगवान विष्णु को पहचान लिया और राजा बलि को दान देने से मना किया किन्तु राजा बलि प्रभु को अपने द्वार पर आया जान कर प्रसन्न हुए और उन्हें दान का वचन दे दिया | भगवान विष्णु ने दान पा कर अपने शरीर का विस्तार करना प्रारम्भ कर दिया | भगवान ने अपने तीनो पग में स्वर्ग ,पृथ्वी नाप लिए और राजा बलि को रसातल में भेज दिया किन्तु राजा बलि की भक्ति और गुणों से प्रभावित हो कर राजा बलि को वरदान मांगने को कह बैठे | राजा बलि ने वरदान में माँगा की वो जहाँ भी देखे भगवान विष्णु उन्हें दिखाई दे | भगवान असमंजस में पद गए और हारकर राजा बलि के द्वारपाल बन बैठे | ऐसा होने पर माँ लक्ष्मी परेशान हो गयी वे बैकुंठ में अकेली हो गयी | अपने पति को पुनः पाने के लिए माँ लक्ष्मी ने श्रावण मॉस की पूर्णिमा को राजा बलि को रक्षासूत्र बाँध कर अपना भाई बना लिया और उपहार स्वरूप अपने पति को मांग लायी |

पुराणों में वर्णित दूसरी कथा के अनुसार देवासुर संग्राम में जब इंद्र की हार होने लगी तो इंद्र ने श्रावण मॉस की पूर्णिमा के दिन अपने गुरु वृहस्पति से रक्षासूत्र बंधवाया और अपने गुरु के कहे अनुसार निम्न मंत्र का जाप किया जिससे राजा इंद्र की विजय हुई -

येनबद्धो बलि राजा दानवेन्द्रो महाबलः  | त्वाममिवध्नामि रक्षे माचलं माचलं ||

तभी से ब्राह्मण द्वारा रक्षासूत्र बाँधने की परम्परा प्रारम्भ हो गयी |

तीसरी कथा महाभारत काल अर्थात द्वापर युग की है | भगवान श्री कृष्ण ने जब शिशुपाल का वध किया तो सुदर्शन चक्र को पुनः धारण करते समय भगवान श्री कृष्ण की ऊँगली में चोट लग गयी और रक्तस्राव होने लगा यह देख कर द्रौपदी ने अपनी साडी फाड़ कर भगवान की ऊँगली में बाँध दी | भगवान श्री कृष्णा ने द्रौपदी को वचन दिया की वे सदैव उसकी रक्षा करेंगे | और समय आने पर द्द्युतसभा में चीरहरण के समय भगवान श्री कृष्ण ने द्रौपदी के सम्मान की रक्षा की थी |

युग भले ही परिवर्तित होते रहे हो किन्तु रक्षासूत्र का महत्व कभी नहीं बदला ऐसा ही उदाहरण हमे इस कठिन काल अर्थात कलिकाल में भी देखने को मिलता है | जहाँ धर्म भी इसके महत्व को झुठला ना सके | यह कहानी रानी कर्मावती की है जिन्होंने अपने कठिन समय में राजा हुमायु को राखी भेज कर उनसे मदद मांगी थी और राजा हुमायु अपने सेना लेकर वह पहुंचा |

रक्षाबंधन की ये कहानिया स्वयं ही इसके सर्वव्यापक महत्व को दर्शाती है | रक्षाबंधन का यह त्यौहार आप सभी के जीवन को प्रेम और मानवता से सदैव भरता रहेगा |