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आज मिल बैठे थे कुछ यार 
यूँ तो मिलते थे हम रोज़ 
पर आज हवा मैं कुछ था 
शायद फुर्सत की महक 
या फिर शायद फुर्सत का एहसास 
अब सच था या झूठ
जो कुछ भी था 
मिल तो बैठे थे कुछ यार 
कोई जंग जीत के आया था
और कोई बाज़ी हार के 
किसी को लग रहा था 
शायद मंज़िल मिल गयी
किसी का सपना अभी भी सपना था 
और किसी को मंज़िल की छा में
चलते चलते जो 
कांटे चुभ रहे थे
उनसे शिकायत थी
और किसी को
बाज़ दफवा इस बात का भरोसा चाहिये था 
की मंज़िल उसे मिल जाएगी...
और जब मिल बैठे कुछ यार 
तो इन सब तकरीरों को 
एक आश्वाशन 
एक तसली 
एक तारीफ 
एक उम्मीद 
जिसे जिस भी चीज़ की तमना थी 
उसे वह मिल गयी 
क्या बात यह यारों की फुर्सत 
और उस पे 
मिल बैठना एक साथ
हर मसाला सुलझा सा लगाने लगा 
हर सपना सच्चा सा लगाने लगा 
हर चेहरे पे मुस्कुहरत बिखर गयी
हर उम्मीद पे फिर से बहार आ गयी 
मंज़िलें कुछ आसान सी लगने लगी 
सोया हुआ इश्क़ फिर जवान हो गया 
खोये हुए दोस्ताने फिर करीब आ गया 
ऐसा लगा 
इन फुर्सत के पलों में 
जब मिल बैठे यार 
तब ये एहसास भी नक़ाब से निकल आया 
ज़िन्दगी में पलों को ढूँढ़ते ढूँढ़ते 
हर पल में कितनी 
ज़िन्दगी खो बैठे थे हम.
आज फिर कुछ यार मिल बैठे 
फुर्सत में 
एक दूसरे की रूह को छू बैठे 
कितना ख़ूबसूरत
कितना मासूम 
कितना खुशनुमा सा था सब कुछ 
और कितनी आसानी से
हर किसी के
जज़्बात 
आईने की तरह 
आर पार
नज़र आ रहे थे.
चलो अब चलें
अलविदा यारों
फिर मिल बैठेंगे 
फुर्सत के पलों में 
जब भी कोई जुंग जीतेगा 
या फिर 
कोई बाज़ी हार बैठेगा 
मुस्कुहराठों और रुसवाईओं के बीच.
पर अलविदा के साथ
यह वादा रहा
फिर मिल बैठेंगे ज़रूर 
फुर्सत के पलों में.
क्यूंकि यारों
दोस्ती
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से 
मिला देने की 
एक खुशनुमा सी
दस्तक है 
इसे कभी रुस्वा मत होने देना.
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